हवस नहीं, इंसानी अधिकार: शारीरिक संतुष्टि का नैतिक पक्ष

हवस नहीं, इंसानी अधिकार: शारीरिक संतुष्टि का नैतिक पक्ष।


सदियों से हमारी सभ्यता ने कामेच्छा यानी शारीरिक इच्छाओं को पाप, अपराध या शर्म की निगाह से देखा है। खासकर जब कोई स्त्री अपनी इच्छाओं को व्यक्त करे, तो उसे तुरंत “चरित्रहीन” या “हद से ज़्यादा आज़ाद” कहा जाता है। लेकिन क्या यह सही है?

क्या अपनी ही देह की ज़रूरत को पहचानना और उसे पूरा करना किसी इंसान के नैतिक स्तर को घटाता है?
नहीं। बिल्कुल नहीं।

कामेच्छा – जीवन की एक स्वाभाविक भावना

काम या हवस (जैसा समाज अक्सर उसे कठोर शब्दों में कहता है) कोई गंदा शब्द नहीं है। यह मनुष्य की एक मूलभूत भावना है, ठीक वैसे ही जैसे भूख, प्यास या नींद। शरीर की ज़रूरतों को समझना और उन्हें सम्मान देना जीवन का हिस्सा है।

हर मर्द और हर औरत के भीतर यह स्वाभाविक इच्छा होती है कि उन्हें शारीरिक रूप से अपनाया जाए, प्यार किया जाए, और उन्हें संतुष्टि मिले — लेकिन समाज ने इस भावना को हमेशा दबाया, कुचला और अपराध जैसा बना दिया।

संतुष्टि का अधिकार हर किसी को है

किसी भी स्वस्थ और संतुलित रिश्ते की नींव सिर्फ़ भावनाओं पर नहीं, शारीरिक जुड़ाव पर भी टिकी होती है।
सिर्फ़ पुरुष ही नहीं, स्त्रियाँ भी यह चाह रखती हैं कि उनका साथी उन्हें पूरी तरह से समझे — तन और मन दोनों स्तर पर।

किंतु कई बार स्त्रियों की इच्छाओं को या तो नज़रअंदाज़ किया जाता है, या उन्हें इस तरह से पाला-पोसा जाता है कि वे अपने ही मन में उठती कामनाओं को अपराध समझने लगती हैं।

पर सच यही है —

संतुष्ट रहने का अधिकार स्त्री हो या पुरुष, हर इंसान को है।
और यह अधिकार सहमति, प्रेम और सम्मान के साथ निभाया जाए, तो वह रिश्ते को और अधिक सुंदर बना देता है।

हवस या प्रेम — फ़र्क़ नज़रिए में है

जब कामेच्छा केवल स्वार्थ, ज़ोर-ज़बरदस्ती या अधिकार के रूप में जताई जाती है, तब वह "हवस" कहलाती है। लेकिन जब वही भावना सम्मति, समर्पण और समझदारी के साथ सामने आती है — तब वह “प्रेम” बन जाती है।

शारीरिक संतुष्टि तभी पवित्र होती है, जब उसमें आत्मा की स्वीकृति हो, जब हर स्पर्श में इज़्ज़त हो, और जब तन की दूरी मिटाते हुए दो आत्माएं एक-दूसरे को अपनाएं।

निष्कर्ष

हमें समाज के इस पुराने चश्मे को बदलना होगा — जो कामेच्छा को केवल वासना मानता है।
हमें यह समझना होगा कि शारीरिक संतुष्टि कोई गुनाह नहीं, बल्कि एक मानवीय ज़रूरत और अधिकार है।
जब तक वह सहमति, प्रेम और सम्मान के साथ जुड़ी हो — तब तक उसमें कोई पाप नहीं, केवल गहराई होती है।

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